किसी भी मुक्तिकामी साहित्य के मूल्यांकन के लिए उसकी वैचारिकी की समझ होना बहुत जरूरी है। चूंकि आदिवासी समाज और साहित्य बाहरी समाज से काफी अलग है, इसलिए उनका मूल्यांकन करते वक्त हमें बाहरी प्रतिमानों को किनारे रखना होगा। अक्सर साहित्य की राजनीति से प्रभावित आलोचना साहित्य के मूल्यांकन के प्रतिमान निर्धारित करती है। ऐसे में आलोचक के समक्ष जो ज्ञान-परंपरा होती है, जिन मूल्यों में वह या उसकी भाषा के लोग विश्वास करते हैं और जो उसका सच होता है, उसी के आधार पर वह साहित्य के मूल्यांकन के प्रतिमान बनाता है। उदाहरण के लिए एक हिंदीभाषी आलोचक के लिए निराला और उनकी ‘राम की शक्ति पूजा’ श्रेष्ठ कविता का मानक है, वह स्वयं संस्कृत ग्रंथों, हिंदू मिथकों और तत्समप्रधान शब्दावली को पसंद करता है तो मुमकिन है कि उसके द्वारा निर्धारित प्रतिमानों के अनुसार किसी समसामयिक विषय पर तद्भव व देशज प्रधान हिंदी में लिखी कविता (चाहे वह नागार्जुन की ही क्यों न हो) अच्छी नहीं होगी। और जब बात आदिवासी कविता की आएगी तो फिर और भी मुश्किल होगी। आदिवासी साहित्य की शब्दावली आदिवासी दर्शन से आई है। जंगल, पहाड़ और पुरखों से संबंधित बड़ी संख्या में ऐसे शब्द आदिवासी लेखन में भरे पड़े हैं, जिसके गहरे सांस्कृतिक संदर्भ हैं। उस सांस्कृतिक संदर्भ की वजह से हिंदी आदि बाहरी भाषाओं में न उनके समानांतर शब्द खोजे जा सकते और न अनुवाद किया जा सकता। ऐसे में आदिवासी साहित्य को समझना और उसका मूल्यांकन करना बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है।
आदिवासियों के बारे में
बाहरी समाज द्वारा हुए लेखन में वे या तो बेचारे हैं या हिंसात्मक क्रांतिकारी।
इस पर टिप्पणी करते हुए वंदना टेटे लिखती हैं, ‘वे समझ ही नहीं पाते कि उनका नकार
‘क्रांति (सत्ता) के लिए किया जाने वाला प्रतिकार’ बल्कि समष्टि के बचाव और
सहअस्तित्व के लिए है।’[1]
मूल्यांकन
की चुनौती किस प्रकार उपस्थित होती है, इस पर कविता के संदर्भ में वंदना टेटे
लिखती हैं, ‘अपनी विशेष परख-दृष्टि पर आदिवासी रचनाओं को कसते हुए वैसी तमाम
कृतियों को भारत के वृहत्तर साहित्य समाज ने कविता मानने से इन्कार कर दिया, जो
आदिवासीपन के साथ लिखी गई थी।’[2] वंदना
टेटे उदाहरण देकर बताती हैं कि कैसे आदिवासीपन वाली रचनाओं की उपेक्षा हुई और कैसे
कुछ रचनाकरों की जाति, धर्म, लैंगिक उत्पीड़न, घरेलु हिंसा आदि लोकप्रिय विषयों
पर लिखी गई रचनाएं जनरुचि के अनुकूल होने के कारण महत्पूर्ण मानी गईं! यानी आदिवासी लेखन का मूल्यांकन करने के लिए पहले मूल्यांकनकर्ता को
आदिवासी समाज और साहित्य की परंपरा व मूल्यों से परिचित होना होगा।
सवाल उठता है कि जिस
तरह से डॉ. भीमराव अंबेडकर का दर्शन दलित साहित्य के मूल में है क्या उसी तरह से
आदिवासी साहित्य के भी कोई विचार पुरूष हैं? वैसे तो आदिवासी
साहित्य आदिवासी दर्शन पर केन्द्रित है लेकिन आदिवासी दर्शन को समझने के लिए
सुविधा की दृष्टि से अंबेडकर के बरक्स किसी को खड़ा किया जा सकता है वे हैं जयपाल
सिंह मुंडा। इनके बारे में अभी काफी कम काम हुआ। इन पर हिंदी में केवल अश्विनी
कुमार पंकज और बलबीर दत्त की एक-एक किताब आई है[3]
[4]।
जयपाल सिंह के चिंतन का मूल भी आदिवासी दर्शन ही है। जयपाल सिंह एक खिलाड़ी,
संपादक, लेखक, राजनीतिज्ञ और प्रशासक रहे हैं। संविधान सभा में वे देश के
आदिवासियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। देश के आदिवासियों की ओर से बोलते हुए वे
कहते हैं, ‘मैं सभा से कहना चाहूंगा कि अगर देश में कोई सबसे ज्यादा दुर्व्यवहार
का शिकार हुआ है तो वह हमारे लोग हैं। पिछले छह हजार सालों से उनकी उपेक्षा हुई है
और उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया है। मैं सिंधुघाटी सभ्यता का वंशज हूं,
उसका इतिहास बताता है कि आपमें से अधिकांश लोग, जो यहां बैठे हैं, बाहरी हैं,
घुसपैठिए हैं।’[5] जयपाल
सिंह का यह तेवर उनके तमाम भाषणों में देखा जा सकता है। यह दुखद है कि उनके भाषणों
न कोई मुकम्मल संकलन आया है और न छिटपुट को छोड़कर अनुवाद ही हुआ है। उनके लेखों
को तो अभी खोजा जाना शेष है।
जयपाल सिंह के बारे में
जितनी सामग्री मिलती है, उसमें सबसे प्रमुख उनकी अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक ‘लो
बिर सेंदरा’ है। इसी को आधार बनाकर अश्विनी कुमार पंकज और बलवीर दत्त ने उनके ऊपर
किताबें लिखी हैं। इन किताबों में उनके राजनैतिक जीवन के विविध पहलुओं और आदिवासी
आंदोलनों से उनके रिश्तों के बारे में विस्तार से लिखा गया है। जयपाल सिंह ने
लंबे समय तक ‘आदिवासी महासभा’ का नेतृत्व किया और वह झारखंड आंदोलन का सूत्रपात
करने वाली झारखंड पार्टी के भी संस्थापक सदस्य थे। संविधान सभा में उन्होंने
‘अनुसूचित जनजाति’ की जगह ‘आदिवासी’ पद सुझाया लेकिन उनकी बात मानी नहीं गई। इसी
प्रकार उन्होंने 5वीं और छठी अनुसूची का सवाल भी उठाया। हालांकि वे ऑक्सफोर्ड से
पढ़कर आए थे लेकिन अपने बाद के जमीनी अनुभवों के कारण आदिवासियों के वास्तविक
मुद्दों से लगातार देश को परिचित कराते रहे। आदिवासी भी उन्हें अपना नेता मानते
थे। उन्होंने आदिवासियों के खानपान और संस्कृति पर भी संविधान सभा में लंबे भाषण
दिये जिन्हें मौजूदा समय में चल रहे ‘मांस विमर्श’ के संदर्भ में पढ़ा जा सकता
है।
बाद के चिंतकों में
रामदयाल मुंडा का नाम प्रमुख है। यह दिलचस्प है कि उनका चिंतन भी आदिवासी दर्शन
पर टिका है। डॉ. रामदयाल मुंडा ने आदिवासियों की आस्थाओं को हिंदुओं की आस्था से
पृथक करने के लिए ‘आदि धरम’ नाम से किताब लिखी है। उन्होंने जनगणना में
आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की भी मांग की। ‘’डॉ. मुंडा का यह प्रयास धार्मिक
सोच या पूजा-पाठ तक ही सीमित नहीं था। चूंकि धर्म जुड़ा है संस्कृति से, आर्थिक
चक्र से, मातृभाषा से, जंगल से, जमीन से- आदि धरम का मजबूत होना इन सबको मजबूत
करेगा।’’[6]
आदिवासी चिंतकों में हैराल्ड एस. तोपनो का काम भी महत्वपूर्ण है। ये एक
सजग पत्रकार और एक्टिविस्ट थे। इनके लेखों का संकलन अश्विनी कुमार पंकज ने
‘उपनिवेशवाद और आदिवासी संघर्ष’ शीर्षक से संपादित किया है। पंकज ने इन्हें
‘हिंदी का पहला आदिवासी विमर्शकार’ कहा है। वे लिखते हैं, ‘’वह हिंदी का पहला
आदिवासी सिद्धांतकार है जिसने आदिवासियत के आलोक में, आदिवासी विश्वदृष्टि के
नजरिये से पूंजीलोलुप समाज-सत्ता के दर्शन पर चोट की। उसने बताया कि विकास का यह
शासकवर्गीय नजरिया देश के मूलनिवासियों और आदिवासियों के लिए सिवाय मिथ्या के कुछ
नहीं। यह व्यवस्था लुटेरी और हत्यारी है तथा यह आदिवासी क्या, किसी भी आम
नागरिक को कोई बुनियादी सुविधा और मौलिक अधिकारों के उपभोग का स्वतंत्र अवसर नहीं
देने जा रही। क्योंकि विकास की उनकी अवधारणा उसी नस्ली, धार्मिक और सांस्कृतिक
सोच की देन है, जिसमें आदिवासियों, स्त्रियों, दलितों और समाज के पिछड़े तबकों के
लिए कभी कोई जगह नहीं रही है।’’[7]
आदिवासी
दर्शन व्यक्ति केन्द्रित विचार और विचार-पद्धति में विश्वास नहीं करता इसलिए
वहां कोई ‘वाद’ जैसा कुछ नहीं है। हां, पुरखे हैं और उनका चिंतन है, जिसके प्रति
आदिवासी समाज और उसके साहित्यकारों का कृतज्ञता का भाव है। उपर्युक्त तमाम
चिंतकों के लेखन और चिंतन भी आदिवासी दर्शन पर केन्द्रित है. यानी आदिवासी दर्शन
आदिवासी साहित्य के मूल में है.
[1]
लोकप्रिय आदिवासी कहानियां, भूमिका, पृष्ठ-8
[2]
लोकप्रिय आदिवासी कविताएं, भूमिका, पृष्ठ-11
[3]
मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा – अश्विनी कुमार पंकज,
विकल्प प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016
[4]
जयपाल सिंह :
एक रोमांचक अनकही कहानी – बलबीर दत्त, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली,
2017
[5]
19 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में दिये गए भाषण
से, आदिवासी साहित्य-1, पृष्ठ-4
[6]
आदिवासी और आदिधरम :
एक आत्ममंथन, गुंजल इकिर मुंडा, आदिवासी साहित्य-3, पृष्ठ-38
[7]
उपनिवेदशवाद और आदिवासी संघर्ष, पृष्ठ-14