आदिवासी इस देश के प्रथम नागरिक हैं- जयपाल सिंह मुंडा

मैं उन लाखों अज्ञात लोगों की ओर से बोलने के लिए यहाँ खड़ा हुआ हूँ, जो सबसे महत्त्वपूर्ण लोग हैं, जो आजादी के अनजान लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं और जिनको बैकवर्ड ट्राइब्स, प्रिमिटिव ट्राइब्स, क्रिमिनल ट्राइब्स और जाने क्या-क्या कहा जाता है। पर मुझे अपने जंगली होने पर गर्व है क्योंकि यह वही संबोधन है जिसके द्वारा हम लोग इस देश में जाने जाते हैं। हम जंगल के लोग आपके संकल्प को अच्छी तरह से समझते हैं। अपने 30 लाख आदिवासियों की ओर से मैं इस संकल्प का समर्थन करता हूँ। इस भय से नहीं कि इसे भारत के राष्ट्रीय कांग्रेस के एक बड़े नेता ने प्रस्तावित किया है। हम इसका समर्थन इसलिए करते हैं क्योंकि यह देश के हर नागरिक की धड़कन और उनकी भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है। इस संकल्प के एक भी शब्द के साथ हमारा कोई झगड़ा नहीं है। एक जंगली और एक आदिवासी होने के नाते संकल्प की जटिलताओं में हमारी कोई विशेष दिलचस्पी नहीं है। लेकिन हमारे समुदाय का कॉमन सेंस कहता है कि हममें से हर एक ने आजादी के लिए संघर्ष की राह पर एक साथ मार्च किया है। मैं सभा से कहना चाहूँगा कि अगर कोई देश में सबसे ज्यादा दुर्व्यवहार का शिकार हुआ है तो वह हमारे लोग हैं। पिछले छह हजार सालों से उनकी उपेक्षा हुई है और उनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया गया है। मैं जिस सिंधुघानागरिक बरताव सबके साथ हो, वही हमारे साथ भी होआदिवासियों को भी बराबर का नागरिक समझा जाए। 'हिंदूस्थान' हमारी समस्या है। पाकिस्तान समस्या है। आदिवासी भी समस्या हैं। अब अगर ऐसे में भिन्न-भिन्न दिशाओं में चिल्लाते हुए लोग एक-दूसरे से भिड़ने लगें, एक-दूसरे से अलग-अलग भावनाएँ रखने लगें, तो हम सभी खत्म हो जाएँगे और यह देश कब्रस्थान बन कर रह जाएगा। पंडित नेहरू के शब्दों पर विश्वास करते हुए भी मैं कहूँगा कि हमारे लोगों का पूरा इतिहास गैर-आदिवासियों के अंतहीन उत्पीड़न और बेदखली को रोकने के लिए किए गए विद्रोहों का इतिहास हैमैं आप सब के कहे हुए पर भी विश्वास कर रहा हूँ कि हम लोग एक नए अध्याय की शुरुआत करने जा रहे हैं, स्वतंत्र भारत के एक नए अध्याय की, जहाँ सभी समान होंगे, सबको बराबर का अवसर मिलेगा और एक भी नागरिक उपेक्षित नहीं होगा।


हमारे समाज में जाति के लिए कोई जगह नहीं होगी। हम सभी बराबर होंगे। कैबिनेट मिशन की तरह किसी के साथ कोई उपेक्षा व अन्याय नहीं होगा, जैसा कि 30 लाख लोगों के साथ किया गया है। हमें उस राजनीतिक दृष्टिकोण पर विचार करना चाहिए कि क्यों इस संविधान सभा में सिर्फ 6 ही आदिवासी प्रतिनिधि मौजूद हैं। इसके कारण क्या हैं? संविधान सभा में भी आदिवासियों की बराबर की भागीदारी हो, इसके लिए राष्ट्रीय कांग्रेस ने क्या किया? क्या और आदिवासियों, वह भी केवल पुरुष नहीं बल्कि महिलाओं के भी, की सहभागिता के लिए कोई प्रावधान या नियम के बारे में सोचा जा रहा है? इस सभा में बैठे हुए सभी पुरुष हैं। श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित की तरह हमें यहाँ इस सभा में और महिलाएँ चाहिए, जिन्होंने अमेरिका में नस्लवाद को पछाड़कर जीत हासिल की है। हमारे लोग आपके नस्लवाद से, हिंदुओं और उन जैसे बाहरी लोगों के नस्लवादी से पिछले छह हजार सालों से उत्पीड़ित हैं। उससे जूझ रहे हैं। हमारे आदिवासी लोग भी भारतीय हैं और उनका भी उतना ही इस देश से सरोकार है जितना कि किसी और का। इसलिए एडवाइजरी कमिटि में, जिसके लिए सदस्यों का चयन होना है, हमारे टी सभ्यता का वंशज हूँ, उसका इतिहास बताता है कि आप में से अधिकांश लोग, जो यहाँ बैठे हैं, बाहरी हैं, घुसपैठिए हैं। जिनके कारण हमारे लोगों को अपनी धरती छोड़कर जंगलों में जाना पड़ा। इसलिए यहाँ जो संकल्प पेश किया गया है वह आदिवासियों को 'लोकतंत्र' नहीं सिखाने जा रहा। आप सब आदिवासियों को लोकतंत्र सिखा ही नहीं सकते। बल्कि आपको ही उनसे लोकतंत्र सीखना है। आदिवासी पृथ्वी पर सबसे अधिक लोकतांत्रिक लोग हैं। हमारे लोगों की आकांक्षा वे अधिकाधिक सुरक्षाएँ नहीं हैं, जिन्हें नेहरु ने संकल्प में रखा है। आज उनकी जरूरत सरकार से सुरक्षा की है। हम कोई अतिरिक्त या विशेष सुरक्षा की माँग नहीं कर रहे हैं। हम बस यही चाहते हैं कि जोलोगों को भी जगह दी जानी चाहिए। क्योंकि जब मैंने कैबिनेट मिशन को जो पहला मेमोरेंडम दिया था, उसके 20वें सेक्शन की भाषा इस प्रकार थी - 'The Advisory Com- mittee on the rights of citizens, minorities and tribal and excluded areas should contain full representation (mark you 'should contain full representation') of the interests affected ...' लेकिन, जब मुझे कमांड पेपर 6821 मिला जिसमें इसे फिर से छापा गया था, तो इसकी भाषा बदल दी गई है। अब इसे इस प्रकार से लिखा गया है - 'The Advisory commit- tee on the rights of citizens, minorities and tribal and excluded areas will contain due representation.'


मेरा विचार है कि शब्दों की ऐसी बाजीगरी और कुछ नहीं हमारे साथ धोखा है। मुझे वे सारे भाषण और संकल्प याद आ रहे हैं जिनमें आदिवासियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार की बातें की जाती रही हैं। यदि इतिहास ने हमें कोई सबक दिया है तो वह मुझे संकल्प के प्रति अविश्वासी बना रहा है। पर मैं ऐसा नहीं करने जा रहा हूँ। हम सभी एक नए पथ की ओर अग्रसर हैं। यह बहुत ही सामान्य अपेक्षा है कि हम एक-दूसरे पर विश्वास करना सीखेंऔर मैं उन दोस्तों से, जो आज उपस्थित नहीं हैं, कहना चाहूँगा कि वे आएँ और कहें कि हम सभी को एक-दूसरे पर विश्वास है। निश्चित रूप से यह समय हम सभी से पूर्ण विश्वास की माँग कर रहा है। एक-दूसरे पर विश्वास करने का एक नया माहौल हम सभी को मिल-जुलकर रचना ही होगा। सभा में 'पार्टीज' और 'माइनोरिटीज' को लेकर इतनी अधिक बहस हो गई है कि मेरा मन इससे खिन्न हो गया है। मैं हमारे आदिवासी समुदाय को माइनोरिटी नहीं मानता। सदन में वैसे भी सुबह से सुन चुका हूँ कि आदिवासियों को वंचित वर्ग मानना चाहिए। अगर आप आदिवासियों को, जो इस देश के मूल निवासी हैं, उनके साथ भूमिहीन और सामाजिक रूप से बाहरी जातियों को जोड़ना चाह रहे हैं, तो हम इसका विरोध करेंगे, क्योंकि आदिवासी माइनोरिटी या वंचित वर्ग कदापि नहीं हैं। किसी भी सूरत में हम आदिवासियों का हक-हकूक इस देश पर पहला है, जिसे खारिज करने काअधिकार किसी को नहीं है। मुझे इससे ज्यादा कुछ और नहीं कहना है। 


जानता हूँ कि अल्पसंख्यकों, आदिवासियों की समस्याओं का समाधान आनेवाले दिनों में ही संभव है। यहाँ मैंने सिर्फ इशारा किया है जिसका समाधान राज्यों के साहसी पुनर्गठन से ही हो सकेगा। रामगढ़ कांग्रेस की सदारत करते हुए आपने (डॉ. राजेन्द्र प्रसाद) कहा था - 'बिहार के इस भू-भाग में जहाँ हम सब इकट्ठा हुए हैं इसकी अपनी विशेषताएँ हैं। यह वो क्षेत्र है जहाँ भारत के सबसे प्राचीन बाशिंदे रहते हैं। पूरे भारत में फैले हुए आदिवासी लोग आर्यों से नितांत भिन्न प्रजाति के हैं। दूसरे क्षेत्रों की तरह ही इस क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी आदिम संस्कृति को बचाए रखा है। इसलिए मैं फिर से दोहराऊँगा कि आप आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते। आर्यों की फौज लोकतंत्र को खत्म करने पर तुली है। पंडित नेहरु ने अपनी सद्यःप्रकाशित पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में लिखा है- 'आदिवासियों के बहुत सारे गणतांत्रिक समाज-राज्य थे, और उनमें से कई बहुत बड़े क्षेत्र पर स्थापित थे।' आदिवासियों के वे गणतांत्रिक समाज अभी भी हैं, जो भारत की आजादी की लड़ाई में हिरावल दस्ता रहे हैं। मैं दिल से इस संकल्प का समर्थन करते हुए उम्मीद करता हूँ कि जो सदन में मौजूद हैं, और जो बाहर हैं, वे सभी देश के आदिवासियों के विश्वास की रक्षा करेंगे। हम साथ लड़े हैं, साथ बैठे हैं और काम भी साथ करेंगे। सभी की सच्ची आजादी के लिए।. (संविधान सभा की बैठक में 19 दिसंबर 1946 को जयपाल सिंह मुंडा द्वारा दिया गया वक्तव्य। हिंदी प्रस्तुति : अकुपंकज


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