आदिवासी साहित्‍य, अंक-1 संपादकीय - जोहार साथी!

किसी भी पत्रिका के प्रवेशांक से पाठक का यह सवाल लाजिमी है कि यह पत्रिका क्यों? आर. एन.आई. और आई.एस.एस.एन. के आँकड़ों के मुताबिक देशभर में विभिन्न भाषाओं में हजारों की संख्या में पत्रिकाएँ और शोध-पत्रिकाएँ निकल रही हैं। इसके बावजूद हम देखते हैं कि आदिवासी साहित्य पर केन्द्रित राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका दिखाई नहीं पड़ती। देशभर के विश्वविद्यालयों में शोध और सेमिनार के स्तर पर आदिवासी संबंधी लेखन पर बात हो रही है, कुछ पत्रिकाओं ने आदिवासी संबंधी विशेषांक भी निकाले हैं। लेकिन इतने से बात पूरी नहीं होतीअभी आदिवासी साहित्यकारों, उनकी रचनाओं और स्वयं आदिवासी साहित्य की प्रवृत्तियों की पहचान और मूल्यांकन शेष है। हिंदी साहित्य में आदिवासी जीवन संबंधी अध्ययनों. सेमिनारों और संपादित पस्तकों में मुख्यतः गैर-आदिवासी रचनाकारों की रचनाओं को केन्द्र में रखकर विश्लेषण किया जाता है, जिसमें दोहराव बहुत अधिक है। आदिवासी लेखन की बात म चला लिया जाता है कि यह अभी शैशवावस्था में है। ऐसे में आदिवासी लेखन और उसकी प्रवृत्तियों पर बात करना जरूरी है। 


मुझे याद आता है सितंबर 2013 में राँची में हुआ झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा का तीसरा महासम्मेलन, जिसमें आदिवासी रचनाकारों की एक साथ एक दर्जन से अधिक किताबों का लोकार्पण हुआ। अधिकांश किताबें स्थानीय प्रकाशनों से छपी हैं। कुछ के पास तो आईएसबीएन नंबर भी नहीं है। दरअसल आदिवासी साहित्यकार 'पकारों' से भरी प्रक्रिया से परिचित नहीं हैं जिसमें प्रकाशन, प्रचार, प्रशंसा, परस्कार और पाठयक्रम की प्रविधि द्वारा रचनाओं और रचनाकारों को स्थापित किया जाता है। इसलिए उनकी रचनाएँ मठों तक नहीं पहुँच पातीं, और अगर पहुँच भी जाए तो मठाधीशों द्वारा दबा दी जाती हैं। परिणाम यह होता है कि एक गैर-आदिवासी आदिवासियों पर लिखता है तो उस पर गोष्ठियों, समीक्षाओं की बाढ़ सी आ जाती है जबकि आदिवासी साहित्यकार झारखंड, छत्तीसगढ़ या तेलंगाना के किसी कोने में साहित्य रचता हुआ जीवन गुजार देता है और साहित्यिक हलकों में वही उक्ति दोहराई जाती है, 'आदिवासी साहित्य अभी शैशवावस्था में है'


हमारी समझ से आदिवासी साहित्य वही है जो आदिवासी विश्वदृष्टि पर आधारित हो। समकालीन आदिवासी लेखन अस्मिता की खोज, दिकुओं द्वारा किये गए और किये जा रहे शोषण के विविध रूपों के उद्घाटन तथा आदिवासी अस्मिता और अस्तित्व के संकटों और उनके खिलाफ हो रहे संघर्ष का साहित्य है। यह उस परिवर्तनकामी चेतना का रचनात्मक हस्तक्षेप है जो देश के मूल-निवासियों के वंशजों के खिलाफ किसी भी तरह के भेदभाव का पुरजोर विरोध करती है तथा उनके जल, जंगल और जमीन को बचाने के हक में उनके 'आत्मनिर्णय' के अधिकार के साथ खड़ी होती है। 'आदिवासी साहित्य' की पहचान में आदिवासी साहित्य का 'राँची घोषणा पत्र' मददगार होगा। लेखकों की विविधता के कारण ममकिन है यहाँ कुछ रचनाएँ आदिवासी दर्शन के अनुकूल न हों। देशभर में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया बहुत तेजी से चल रही है। ऐसे में लेखकों का उसकी गिरफ्त में आना स्वाभाविक ही है। वह चाहे आदिवासी समाज या कि गैर-आदिवासी समाज का लेखक हो। संस्कतिकरण और मुख्यधारा के दबाव से आदिवासी लेखकों को निकलने में और गैर-आदिवासी लेखकों को अपने मानकों से बाहर आकर आदिवासी साहित्य को समझने में वक्त तो लगेगा ही। इसीलिए हमारी कोशिश होगी कि पत्रिका में उस हर आवाज को जगह मिले जो आदिवासी जीवनदर्शन के विविध पक्षों को पूरी सच्चाई के साथ सामने लाए।


आदिवासी साहित्य' पत्रिका का लक्ष्य देश के विभिन्न हिस्सों में सृजनरत आदिवासी साहित्यकारों की पहचान कर उन्हें एक मंच देना है। इसके साथ ही हम उस हर लेखन-दृष्टि का सम्मान करेंगे, जो साहित्य और समाज के वर्चस्ववादी नजरिए के खिलाफ है, जो बहुरंगी स्वायत्तता वाले समाज और देश की रचना में साहित्य को आदिवासियों की तरह ही एक सामहिक उपक्रम मानते हैं। प्रिय पाठक, हम साल में चार बार ही आपके पास आयेंगे लेकिन हमें उम्मीद है कि आपको हमारा साथ रुचेगा। आपकी प्रतिक्रियाएँ हमें प्रोत्साहित करेंगी। जोहार– गंगा सहाय मीणा


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