कहाँ जाएं आदिवासी?

देश के आदिवासियों का अस्तित्व खतरे में है। सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को एक ऐसा आदेश जारी किया है जो संभवतः आजाद भारत के इतिहास में आदिवासियों के खिलाफ तंत्र की तरफ से सबसे बड़ी कार्यवाही साबित होगा। अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने 16 राज्यों के 10 लाख से अधिक आदिवासी और वनवासी परिवारों को जंगलों से बेदखल करने का आदेश दिया है। न्यायालय के आदेशानुसार यह कार्य मामले की अगली तारीख यानी 27 जुलाई से पहले किया जाना है। यानी बारिश से पहले देश के लगभग 50 लाख आदिवासियों को अपना घर छोड़ना होगा।



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जंगल से आदिवासियों का रिश्ता बहुत गहरा है। उनकी अस्मिता और अस्तित्व जंगल, नदी, पहाड़ से ही परिभाषित होता है। इसलिए जब भी किसी बाहरी ने उन्हें जंगल से बेदखल करने की कोशिश की है, आदिवासियों ने हमेशा विद्रोह किये हैं। अंग्रेजों ने आदिवासी इलाकों पर जबरन कब्जा करना शुरू कर दिया था जिसके खिलाफ आजादी की लड़ाई से भी पहले 18वीं और 19वीं सदी में आदिवासियों ने आंदोलन किये हैं। सही मायने में ये आंदोलन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की शुरूआत माने जाने चाहिए। इनका विजन भी बाद के स्वाधीनता आंदोलन से व्यापक था। ये एक तरफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से सीधे लोह ले रहे थे, वहीं दूसरी तरफ स्थानीय सामंतवाद को भी चुनौती दे रहे थे। 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में हुआ स्वयं बिरसा मुंडा का आंदोलन उलगुलान आदिवासियों के जंगल पर अधिकार को लेकर था। बिरसा शहीद हो गए लेकिन उनके आंदोलन के दबाव में अंग्रेज सरकार ने 1908 में आदिवासियों के वनाधिकारों को बचाने के लिए छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट बनाया। बाद में इसी की तर्ज पर संथाल परगना टेनेंसी एक्ट लाया गया। इनकी रोशनी में ही भारत के संविधान में आदिवासियों के अधिकारों संबंधी प्रावधान किये गए। आदिवासियों की आवाज को संविधान सभा में ठीक से नहीं सुना गया।
 आदिवासी बाहरी समाज से एकदम अलग हैं इसलिए संविधान निर्माण के वक्त आदिवासी स्वायत्तता की मांग कर रहे थे। तब नेहरू आदि ने आजाद भारत में उनके अधिकारों की सुनिश्चित करने की बात कहकर मनाया। आदिवासियों के लिए संविधान में दलितों की भांति कुछ प्रावधान कर दिये गए। आदिवासी बहुल राज्यों में 'जनजातीय सलाहकार परिषद' जैसे कुछ प्रावधान अलग भी थे। लेकिन इन तमाम प्रावधानों को अपने मूल रूप में लागू नहीं किया गया। आज बहुत सारे आदिवासी भी जनजातीय सलाहकार परिषद, 5वीं-6ठी अनुसूची के बारे में नहीं जानते।
 वस्तुस्थिति यह है कि आजादी के बाद भी आदिवासियों को देश का दोयम नागरिक समझा गया। तमाम सरकारों और उद्योगपतियों की नजर आदिवासी इलाकों के प्राकृतिक संसाधनों पर रही। मजबूत राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में विधायिका में उनकी आवाज नहीं सुनी गई। न्यायपालिका में सामाजिक न्याय का विचार पहुंचा ही नहीं और न्यायालयों में आदिवासियों का पक्ष रखने वाला कोई नहीं था इसलिए न्यायालयों ने आदिवासियों की दुर्गति करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। देश के ज्यादातर आदिवासी न्यायालयों की भाषा और पद्धति समझते भी नहीं हैं। 
 आदिवासियों की पुरानी मांग को ध्यान में रखते हुए उनके वनाधिकारों को संरक्षित करने के लिए यूपीए सरकार ने 2006 में वन अधिकार अधिनियम बनाया। इस अधिनियम का मूल लक्ष्य आदिवासियों और वनवासियों को जंगल का मालिकाना हक देना था। अधिनियम तो बन गया लेकिन अभी इसे ठीक से लागू किया जाना ही था कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश ने आदिवासियों को उनके ही जंगलों से बेदखल करने का आदेश दे दिया। दरअसल वन अधिकार अधिनियम आने के बाद बहुत सारे गैर-सरकारी संगठनों ने यह सवाल उठाना शुरू कर दिया कि अगर जंगलों पर इस तरह किसी समुदाय का अधिकार हो गया तो वहां रह रहे वन्यजीवों का क्या होगा? इस तर्क (!) को आधार बनाकर तीन गैर सरकारी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाल दी जिसमें समस्त राज्य सरकारों व केन्द्र सरकार को पार्टी बनाया गया। याचिका में मांग की गई कि वनों और वन्यजीवों के संरक्षण के लिए वनों में रह रहे 'अनाधिकृत' लोगों को वहां से बाहर निकाला जाय। इसके लिए प्रतिमान निर्धारित किया गया कि जो परिवार यह साबित कर सकेगा कि वह तीन पीढियों या इससे अधिक समय से संबंधित जंगल में रह रहा है, केवल उसे ही वहां रहने दिया जाएगा। बाकी सभी को जंगल खाली करना होगा। 
इसी को लेकर न्यायालय ने राज्य सरकारों से रिपोर्ट मांगी। जैसा कि अपेक्षित था, ज्यादातर राज्य सरकारों की सरकारी मशीनरी ने अपनी पद्धति से जंगलों में रह रहे लोगों के दावों की पड़ताल की और इस प्रक्रिया में राज्य सरकारों द्वारा ज्यादातर आदिवासियों के दावों को खारिज कर दिया गया। चूंकि आदिवासी समाज में चीजों के दस्तावेजीकरण की कोई परंपरा नहीं है, इसलिए ज्यादातर आदिवासियों के पास उन जमीनों के कोई पट्टे नहीं हैं, जिनमें वे कई पीढियों से रह रहे हैं, या खेती कर रहे हैं। दूसरे, सरकारी नौकरशाही ने आदिवासियों के पक्ष में काम करने के बजाय उनके विरोध में काम किया। आदिवासियों को अपना दावा प्रस्तुत करने का अवसर ही नहीं दिया गया। अधिकांश आदिवासियों को इस प्रक्रिया और सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है। आदिवासी दुनिया में इन अदालतों, इन दस्तावेजों का कोई महत्व नहीं है। वे बस एक बात जानते हैं, ये जंगल हमारे हैं क्योंकि हजारों साल से हम यहां रहते आए हैं और हमने इनका संरक्षण किया है। नियमगिरि को याद कीजिए। उड़ीसा का पहाड़। वेदांता वहां अपना उद्योग लगाना चाहता था। उसने आदिवासियों को हर तरह से अपने पक्ष में करने की कोशिश की- प्रलोभन से लेकर धमकाने तक। लेकिन आदिवासी झुके नहीं। बारह की बारह ग्राम सभाओं ने एक स्वर में कह दिया- अपना विकास अपने पास रखिए। नियमिगिरी हमारा पिता है, इसने सदियों से हमारा पोषण किया है और हम इसे नष्ट नहीं होने देंगे। यह है आदिवासियों का जंगल-पहाड़ से रिश्ता। पूंजीवादी धनलोलुप इसे क्या समझेंगे? सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पीछे लोग पूंजीपतियों की भूमिका को देख रहे हैं कि आदिवासियों को जंगलों से बेदखल कर सरकार के रास्ते पूंजीपतियों को उन जंगलों और उनमें निहित प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन की खुली छूट मिल जाएगी। अब तक के अनुभव तो यही कहते हैं। विकास परियोजनाओं के नाम पर देशभर में जंगलों को बर्बाद किया गया है लेकिन कभी कोई सरकार पूंजीपतियों को नहीं रोक पाई। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन आदिवासियों ने जंगलों को बचाया, आज जंगलों को बचाने के नाम पर ही उनको उजाड़ने का फरमान जारी हो चुका है और हम सब मूकदर्शक बने देख रहे हैं। हाल ही में केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में विभागवार रोस्टर संबंधी आदेश के माध्यम से उच्च शिक्षण संस्थानों के दरवाजे आदिवासियों के लिए बंद किये गए। अब इस आदेश के माध्यम से उन्हें उनके पैतृक ठिकानों से बेदखल किया जा रहा है। देखना यह है कि आदिवासियों के लिए संकट की इस घड़ी में कौन उनके साथ खड़े होता है! आदिवासियों का अस्तित्व खत्म करने की कोशिशें पहले भी हुई हैं। अपने संघर्षों के माध्यम से उन सबसे आदिवासियों ने खुद को बचाया है। अब हमले का स्वरूप बदल चुका है। हमले को पढे-लिखे मध्यवर्गीय लोगों से लेकर न्यायपालिका की सहमति प्राप्त है। इसलिए निश्चिततौर पर इसका सामना करना आदिवासियों के लिए चुनौतीपूर्ण होगा।


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