उराँवों आदिवासियों के बीच 'करम' की शुरुवात का संपर्क रोहतासगढ़ से है, जिसमें 'करम' पेड़ के बगीचे/झुण्ड ने इनको दुश्मनों से बचाया था| इसलिए इस पेड़ (प्राकृतिक) की पूजा प्रतीकत्मक रूप से रक्षक के रूप में की जाती है जो की साक्षात् यत्र-तत्र उपस्थित रहता है, ऑक्सीजन देता है, जीवन देता है| शायद ये घटना भाद्रपद की एकादशी को हुआ था, इसलिए हर वर्ष भाद्रपद की एकादशी को ही मनाया जाता है| वहीँ दूसरी ओर यही एक सीजन होता है जब फसल की पहली खेप टाँड़ो/खेतों से आता है जो बुनाई के समय घर में अनाज ख़त्म होने से लेकर अनाज के नए दाने का घर में प्रवेश करने तक एक कड़ी के रूप में काम करता है| एक तरीके से प्रकृति एक जीवनदायिनी की तरह काम करता है| गौर करने वाली बात है की उस ज़माने में सालभर में खेती एक बार होती थी और बृहत् झारखण्ड के ज्यादातर हिस्से में अभी भी साल में एक ही बार खेती होती है| काफी सारे घरों में जो अनाज खेतों में डालने के बाद बच जाते हैं उसमें जीवन है या नहीं, या ये अनाज खाने योग्य है या नहीं इसकी एक तरीके से जाँच का वैज्ञानिक तरीका होता है 'जावा' ('जावा' निर्माण के लिए बीज का बीजारोपण करम त्यौहार के 9 दिन पहले किया जाता है)| ये सिर्फ एक त्यौहार, एक परंपरा नहीं है बल्कि आदिवासी समाज समस्त मानव संतति को सन्देश देता है की प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्ण कैसे जीना चाहिए| दर्शन के दृष्टिकोण से देखें तो 'करम' डाली काटने से पहले गाँव का पूजारी/पाहन 'करम' पेड़ के नीचे पूजा करता है (पेड़ से माफ़ी मांगता है जैसे सामान्य तौर पर पेड़ काटने से पहले आदिवासी पेड़ से माफ़ी मांगता है), पूर्वजों को याद करता है और धन्यवाद भी देता है, ये मनुष्य का प्रकृति के साथ अन्योन्याश्रियिता का जबरदस्त नमूना है|
कौन मनाता है? इसका सीधा सा जवाब है, मुख्यतः आदिवासी मनाते हैं और इस त्यौहार को कोई भी मना सकता है, लेकिन दस्तूर, के साथ इज्जत के साथ, सिर्फ दिखाने के लिए की हम पारम्परिक आस्था जीवित रखे हुए हैं और 'अंगूरी बदन' में नाचेंगे तो तौहीन तो होगी ही| वास्तव में 90 के दशक के आखरी दिनों में दक्षिण पंथी सरकार ने अपनी राजनीतिक और धार्मिक पैठ बढ़ाने के लिए दु/ष्प्रचार किया की जो आदिवासी परम्पराओं को और दस्तूरों को नहीं मानता उसे ट्राइबल होने का प्रमाण पत्र नहीं दिया जायेगा, फिर क्या था जहाँ कभी 'करम' का नाम नहीं लिया जाता था वहां भी 'करम' मनाया जाने लगा| समय के साथ आदिवासी भी अपने करने गुनने के तरीके को परिष्कृत किया है, लेकिन एक बात तय है कि आदिवासी मुख्यतः पारम्परिक है जो प्रकृति और प्रकृति रचित चीजों पर आस्था रखता है जो प्रत्यक्ष है -- जैसे सूर्य, चन्द्रमा, पेड़ इत्यादि पर आस्था| ये आस्था और ईश्वर का प्रतिरूप मूर्तियों, मंदिरों, गिरजाघरों में नहीं ढूंढते हैं बल्कि खेतों, खलिहानों, पहाड़ों, नदियों में ढूंढते हैं और अपने पूर्वजों को रसोई, खलिहानों और सरना स्थलों में बसाते हैं| कुल मिलाकर आदिवासी दूसरों के देखा-देखी में अपने आप को धार्मिक रूप में पैकेजिंग करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ऐसा करने से पहले इन्हें बहुत अधिक तैयारी और भविष्य को साफ़-साफ सोचने के बाद करना चाहिए| कहीं-कहीं पर वाद-विवाद करते हुए देखा -- की 'करम' सरना आदिवासी मनाते हैं और 'ईसाई' आदिवासी अपनी सुविधानुसार 'गिरजाघर' प्रांगण में मनाते हैं| कहीं-कहीं के बहस में ये भी सुनने को मिला कि जीसस को जिस पेड़ में क्रॉस पर लटकाया गया था वो 'करम' का पेड़ था इसलिए 'करम' मनाया जाता है|
विस्तृत चर्चा करने से पहले, 'सरना' आदिवासी और 'ईसाई' आदिवासी का विभाजित शब्दावली कब और कैसे आया थोड़ा सा दिमाग लगाएंगे तो आपको समझ में आ जायेगा| आपकी ये भी पता चल जायेगा की विभाजन करने वाली ताकतें कौन सी हैं? इस बीच, 'सौंसार' शब्दावली जो तथाकथित 'सरना' आदिवासी के लिए इस्तेमाल किया गया उसके इतिहास में भी जरा झाँकने की जरुरत है| कबीले के रूप में आदिवासी विभाजित थे ही लेकिन 'धार्मिक' विभाजन काफी महंगा पड़ रहा है, इसमें कोई शक नहीं| इन शब्दावलियों की खोज और विश्लेषण एक अलग लेख में किया जायेगा| खैर, अब 'सरना' जो की एक पूजा स्थल है जहाँ पर पूर्वजों को याद किया जाता और पूजा अर्चना की जाती है को एक 'धर्म' के रूप में गढ़ने की तैयारी चल रही है, वहीँ दूसरी और 'आदि-धर्म/सारी/गोंडी' की पैकेजिंग चल रही है, और एक समूह तो 'ट्राइबल' के नाम पर निष्कर्ष निकाल बैठा है| मुझे लगता है, धर्म और राजनीति दोनों साथ-साथ चलते हैं और 'धर्म' सत्ता हथियाने का एक मजबूत हथियार है इसे आदिवासी समुदाय का बौद्धिक विकास नहीं होगा बल्कि सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक इस्तेमाल होगा जिसका फायदा सिर्फ गिने-चुने लोगों को मिलेगा| 'सरना धर्म' के संघर्ष को सिर्फ सत्ता में समाते देखा है और इसकी शुरुवात काफी पहले से हो चुकी है| जब आदिवासी, 'ईसाई धर्म' अपना रहे थे तो हिन्दू धर्म का एक संगठन लोगों को 'हिन्दू धर्म' की ओर आकर्षित कर रहा था, बस सैंडविच बनने की शुरुवात हो चुकी थी| या यूँ कहें की जब आदिवासी ईसाई होने लगे तो 'ईसाई आदिवासी' का एक समूह तैयार हुआ और ये अपने आप को बाकी आदिवासी से अलग करने के लिए अपने आप को 'ईसाई आदिवासी' और बाकी को 'सरना आदिवासी' ('छोटानागपुर के आदिवासी', लेखक -- पौलुस तोपनो, ये. सं., Kartik Oraon vs David Munzni And Anr. on 14 November, 1963) की शब्दावली से नवाजा| फिर जब, धर्म अपरिवर्तित आदिवासी अपने आप को 'सरना आदिवासी' कहने लगे तो विभाजित करने के आरोप भी लगे| व्यक्तिगत रूप से मुझे 'ईसाई आदिवासी' और 'सरना आदिवासी' शब्दों से बैर है| मेरी समझ से अगर आदिवासी आपस में जुड़ सकते हैं तो एकमात्र रास्ता 'परंपरा' और 'रिवाजों' का है, 'धर्म और ईश्वर' के रास्ते विभाजन के हैं| 'धर्म और ईश्वर' ने सिर्फ तोड़ा है और आप जब तक 'धर्म' और तथाकथित 'ईश्वर' को सूली पर नहीं चढ़ाएंगे -- आपको सूल पर चढ़ाया जाता रहेगा|
मनाने में कोई प्रतिबन्ध नहीं है कोई भी मना सकता है बल्कि सभी जगहों, सभी संस्थानों में दस्तूर के साथ मनाया जाना चाहिए| अपने तरीके से हमने भी जे.एन.यू. में भी कोशिश की थी लेकिन तथाकथित पढ़े लिखे सिर्फ दूसरों को भाषण देते हैं लेकिन खुद कभी अमल नहीं करते हैं|
#माँझी_गनी