आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा : गंगा सहाय मीणा


























आदिवासी साहित्‍य के अध्‍येता प्रो. वीर भारत तलवार ने तद्भव-34 में छपे अपने लेख[1] में आदिवासी संबंधी साहित्‍य की चार श्रेणियां बनाई है- '1. कुछ ऐसे लेखक हैं जो आदिवासी समाज के बारे में बहुत कम और सतही जानकारी रखते हैं और साथ ही अपने सवर्ण हिंदू संस्‍कारों से ग्रस्‍त हैं, अपने सामाजिक-सांस्‍कृतिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्‍त हैं और उसी दृष्टि से आदिवासी समाज को चित्रित करते हैं। 2. दूसरी श्रेणी उन लेखकों की है जो लंबे समय से आदिवासियों के करीब रहते आए हैं और उनसे पूरी सहानुभूति रखते हैं, उनके समाज से थोड़ा-बहुत वाकिफ भी हैं। इनकी मुख्‍य प्रवृत्ति आदिवासियों के दमन, शोषण और उत्‍पीड़न को चित्रित करने और उनकी आर्थिक राजनीतिक समस्‍याओं को उठाने की है। 3. उन लेखकों का साहित्‍य जो आदिवासियों के बीच लंबे समय तक रहे हैं, जिन्‍होंने उनका अच्‍छा–बुरा देखा है और उनकी प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास किया है। और 4. चौथी श्रेणी खुद आदिवासियों द्वारा लिखे साहित्‍य की है। वह उन्‍होंने अपनी मूल भाषाओं में लिखा हो या हिंदी, बांग्‍ला या अन्‍य प्रादेशिक भाषाओं में, इससे फर्क नहीं पड़ता।' इन चार श्रेणियों में से वीर भारत तलवार चौथी श्रेणी को ही प्रामाणिक आदिवासी साहित्‍य मानते हैं और शेष तीन श्रेणियों को आदिवासी संबंधी साहित्‍य। चौथी श्रेणी, यानी स्‍वयं आदिवासियों द्वारा लिखित साहित्‍य के बारे में वे लिखते हैं, ''इसकी गुणवत्‍ता बिल्‍कुल अलग किस्‍म की है। आदिवासियों के जीवन और समाज के सच्‍चे चित्र यहीं मिलते हैं।''[2]


वीर भारत तलवार द्वारा आदिवासी केन्द्रित साहित्‍य का वर्गीकरण महत्‍वपूर्ण है, खासतौर पर गैर-आदिवासी लेखन के संदर्भ में, क्‍योंकि उसकी उन्‍होंने तीन श्रेणियां बनाई हैं। चूंकि हमारे अध्‍ययन का विषय आदिवासी लेखन है, इसलिए हम आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा पर थोड़ा अलग प्रविधि से बात करेंगे। आदिवासी साहित्‍य के नाम पर मुख्‍यतः तीन तरह का साहित्‍य हमारे सामने है-


      -आदिवासियों के बारे में लिखा गया साहित्‍य।


      -आदिवासियों के द्वारा लिखा गया साहित्‍य और


      -आदिवासी दर्शन को आधार बनाकर लिखा गया साहित्‍य।


      आदिवासियों के बारे में लिखे गए साहित्‍य का आदिवासी साहित्‍य के रूप में दावा करना सहज है। इसीलिए शोधार्थी अक्‍सर रेणु के 'मैला आंचल' के संथाल प्रसंग या योगेन्‍द्रनाथ सिन्‍हा के 'वनलक्ष्‍मी' से आदिवासी साहित्‍य की शुरूआत मान लेते हैं। कुछ लोग तो तुलसीदास के रामचरितमानस में आए वन के प्रसंगों को भी आदिवासी साहित्‍य में मान लेते हैं और इसी दृष्टि से विश्‍लेषण करने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि जहां भी वन, जंगल या किसी आदिवासी समुदाय का जिक्र आ जाता है, उसे ही आदिवासी साहित्‍य मान लिया जाता है और इससे 20वीं सदी के आखिरी दशक में प्रमुखता से उभरे आदिवासी साहित्‍य के आंदोलन के बारे में भ्रमों का निर्माण होता चला जाता है। आदिवासी चिंतक हिंदी साहित्‍य में आए वन या आदिवासी प्रसंगों को आदिवासी साहित्‍य मानने से इंकार करते हैं।


इस तरह आदिवासी साहित्‍य के बारे में दूसरा विचार सामने आता है- आदिवासियों के द्वारा लिखा गया साहित्‍य ही आदिवासी साहित्‍य है। यह विचार स्‍त्रीवादी साहित्‍य और दलित साहित्‍य के प्रभाव में निर्मित हुआ है। जाहिर है इस तर्क की अपनी सीमाएं हैं। अनुभूति की प्रामाणिकता किसी साहित्‍य का एकमात्र आधार नहीं हो सकती। आज जब आदिवासी समाज गहरे सांस्‍कृतिक हमलों से गुजर रहा है, ऐसे में आदिवासी समाज का सच लिखने के लिए केवल किसी समुदाय में पैदा हो जाना काफी नहीं है। आदिवासी समुदायों का बड़ी संख्‍या में हिंदूकरण और ईसाईकरण हुआ है। इसने उनकी मौलिक समझ और दर्शन को बहुत प्रभावित किया है।


इस प्रक्रिया में आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा को लेकर तीसरा विचार सामने आता है कि आदिवासी दर्शन को आधार बनाकर लिखा गया साहित्‍य ही आदिवासी साहित्‍य माना जाए। जाहिर है आदिवासी दर्शन ही वह तत्‍व है जो आदिवासी समाज और साहित्‍य को शेष समाज और साहित्‍य से अलग करता है। यह आदिवासी जीवन का मूल है और जिस पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। इसलिए जहां आदिवासी दर्शन आदिवासी साहित्‍य की मूल शर्त है वहीं इसे बचाना आदिवासी साहित्‍य आंदोलन का मुख्‍य ध्‍येय। निष्‍कर्षतः आदिवासी साहित्‍य आदिवासी दर्शन पर आधारित साहित्यिक आंदोलन है जो आदिवासी परंपरा से अपने तत्‍व लेता है और 21वीं सदी के पहले दशक में अकादमिक जगत में अपना अलग साहित्यिक आंदोलन होने का दावा प्रस्‍तुत करता है। समकालीन आदिवासी लेखन की शुरूआत हमें उदारवाद, बाजारवाद और भूमंडलीकरण के उभार से माननी चाहिए। भारत सरकार की नई आर्थिक नीतियों ने आदिवासी शोषण-उत्‍पीड़न की प्रक्रिया तेज की, इसलिए इसका प्रतिरोध भी मुखर हुआ। शोषण और उसके प्रतिरोध का स्‍वरूप राष्‍ट्रीय था, इसलिए प्रतिरोध से निकली रचनात्‍मक उर्जा का स्‍वरूप भी राष्‍ट्रीय था। आदिवासी अस्मिता और अस्तित्‍व की रक्षा के लिए राष्‍ट्रीय स्‍तर पर पैदा हुई रचनात्‍मक उर्जा का नाम ही समकालीन आदिवासी साहित्‍य आंदोलन है। ''आदिवासी साहित्‍य अस्मिता की खोज, दिकुओं द्वारा किये गए और किये जा रहे शोषण के विभिन्‍न रूपों के उद्घाटन तथा आदिवासी अस्मिता और अस्तित्‍व के संकटों और उनके खिलाफ हो रहे प्रतिरोध का साहित्‍य है। यह उस परिवर्तनकामी चेतना का रचनात्‍मक हस्‍तक्षेप है जो देश के मूल निवासियों के वंशजों के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव का पुरजोर विरोध करती है तथा उनके जल, जंगल, जमीन और जीवन को बचाने के हक में उनके 'आत्‍मनिर्णय' के अधिकार के साथ खड़ी होती है।''[3]


आदिवासी साहित्‍य के नाम पर किये जा रहे शोधों में से काफी मात्रा में ऐसे भी हैं जिनका आदिवासी समाज और साहित्‍य से कोई सीधा संबंध ही नहीं बनता। वस्‍तुस्थिति यह है कि आदिवासी जीवन और समाज पर गैर-आदिवासी रचनाकारों के कहानी-उपन्‍यास प्रशंसा, पाठ्यक्रम और पुरस्‍कार पा रहे हैं तथा दो-एक आदिवासी रचनाकारों को छोड़कर सैंकड़ों की संख्‍या में सक्रिय आदिवासी कवि-लेखक उपेक्षा के शिकार हैं। आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा और बुनियादी सवालों को उठाने की दृष्टि से पिछले वर्षों में हुई दो गोष्ठियां बड़ी महत्‍वपूर्ण हैं। इनमें से एक दिल्‍ली में हुई और दूसरी रांची में। जुलाई 2013 में जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय में आदिवासी साहित्‍य पर हुई राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी में संभवतः पहली बार खुले तौर पर झारखंडी भाषा साहित्‍य संस्‍कृति अखड़ा (रांची) की संयोजक और आदिवासी रचनाकार वंदना टेटे ने आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा के सवाल को मुखरता से उठाया। उन्‍होंने इस बात पर जोर दिया कि कुछ समय के साथ या सुनी-सुनाई बातों से आदिवासी जीवन का सच प्रस्‍तुत नहीं किया जा सकता। मुख्‍यधारा की सोच, भाषा और दृष्टिकोण से आदिवासी जीवन पर किया लेखन रिसर्च हो सकता है, लेकिन आदिवासी साहित्‍य नहीं। आदिवासी ही अपनी पीड़ा को सही ढंग से बयान कर सकता है। उसकी समस्‍याएं प्रधानतः आर्थिक नहीं हैं, जैसा कि अधिकांश रचनाकारों ने चित्रित किया है। इसके बाद वाले सत्र में वंदना टेटे द्वारा उठाये गए सवालों पर कथाकार संजीव सहित आदिवासी जीवन पर लिखने वाले कई गैर-आदिवासी रचनाकारों द्वारा असहमति जताते हुए प्रतिक्रिया दी गई।


वंदना टेटे ने आदिवासी साहित्‍य संबंधी अपने चिंतन को व्‍यवस्थित रूप से अपनी पुस्‍तक 'आदिवासी साहित्‍य : परंपरा और प्रयोजन' में रखा है। आदिवासी साहित्‍य के संवर्द्धन के लिए निजी प्रयासों से संचालित प्‍यारा केरकेट्टा फाउण्‍डेशन से प्रकाशित यह पुस्‍तक आदिवासी जीवन, भाषा, कला, संस्‍कृति और साहित्‍य के बारे में फैलाये जा रहे भ्रमों को तोड़ते आदिवासी नजरिए से आदिवासी साहित्‍य और आदिवासी विश्‍वदृष्टि के बारे में सही समझ विकसित करने की दिशा में सार्थक हस्‍तक्षेप है। इसमें वंदना टेटे आदिवासी साहित्‍य संबंधी प्र‍चलित तीन धारणाओं- उसके लोक साहित्‍य होने, अनगढ़ होने और प्रतिरोध का साहित्‍य होने का खंडन करती हैं तथा आदिवासी संस्‍कृति, जीवन-दर्शन व उनके विश्‍वदृष्टिकोण के प्रति एक नई अंतरंग दृष्टि की मांग करती हैं। वे लोक का संबंध हिंदू मिथक और संस्‍कृति से बताते हुए कहती हैं, ''प्रकृति-पूजक और बोंगा को मानने वाले आदिवासियों के साहित्‍य को हिंदू धर्म की शब्‍दावली 'लोक' में बांध कर संकीर्ण करना धार्मिक असहिष्‍णुता तो है ही, सांस्‍कृतिक अतिक्रमण भी है।''[4] वे लोक और शिष्‍ट के विभाजन से भी अपनी असहमति दर्ज कराती हैं। इसी तरह आदिवासी साहित्‍य और कलाओं को हिंदी आलोचकों द्वारा अनगढ़ बताने को सीधे-सीधे आदिवासी सा‍मूहिकता, सहजीविता ओर सहअस्तित्‍व के दर्शन को वैचारिक रूप से नकारना मानती हैं। पुस्‍तक में वंदना टेटे की सबसे महत्‍वपूर्ण स्‍थापना है कि आदिवासी साहित्‍य अन्‍य शोषितों के साहित्‍य की तरह वेदना और प्रतिरोध का साहित्‍य नहीं है। वे लिखती हैं, ''आदिवासी साहित्‍य मूलतः सृजनात्‍मकता का साहित्‍य है। यह इंसान के उस दर्शन को अभिव्‍यक्‍त करने वाला साहित्‍य है जो मानता है कि प्रकृति सृष्टि में जो कुछ भी है, जड़-चेतन, सभी कुछ सुंदर है।... वह दुनिया को बचाने के लिए सृजन कर रहा है।''[5] वंदना टेटे कहती हैं कि प्रतिरोध का साहित्‍य वर्तमान सत्‍ता के खिलाफ लड़ने वालों की सत्‍ता स्‍थापित करना चाहता है लेकिन आदिवासी साहित्‍य में ऐसी कोई कामना दूर-दूर तक नहीं है।


      इन स्‍थापनाओं के आलोक में आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा को ठीक से समझने की आवश्‍यकता है। हमें स्‍पष्‍ट रखना होगा कि हिंदी आदिवासियों की मातृभाषा नहीं रही है इसलिए हमें इस आग्रह को छोड़ना होगा कि हिंदी में लिखे साहित्‍य को ही आदिवासी साहित्‍य मानेंगे, आदिवासी भाषाओं में लिखे साहित्‍य को आदिवासी साहित्‍य नहीं मानेंगे। आदिवासी साहित्‍य की परंपरा में हमें विभिन्‍न आदिवासी भाषाओं में बिखरे लाखों आदिवासी गीतों के रूप में उपलब्‍ध पुरखौती को शामिल करना होगा जिसका कुछ हिस्‍सा डब्‍ल्‍यू. सी. आर्चर जैसे विद्वानों द्वारा संकलित भी किया गया है। यह आदिवासी साहित्‍य का मूलाधार है। इसलिए आदिवासी साहित्‍य का इतिहास लिखते वक्‍त, उसकी प्रवृत्तियां बताते वक्‍त हमें संताली, मुंडारी, खडि़या, कुडुख, हो आदि भाषाओं की साहित्‍य परंपरा को सामने रखना होगा।


जहां तक गैर-आदिवासियों द्वारा आदिवासी जीवन पर किये लेखन का सवाल है, वह उस लेखकीय संवेदनशीलता का परिचायक है जो साहित्‍य मात्र के उद्देश्‍य, अनुभव और संवेदनशीलता के विस्‍तार, का समर्थन करती है। वह भी हिंदी साहित्‍य की धरोहर है। लेकिन जैसे सभी युगों की प्रगतिशील कविताएं 'प्रगतिवाद' नामक साहित्यिक आंदोलन में शामिल नहीं की जा सकतीं, वैसे ही आदिवासी जीवन के किसी पक्ष पर लेखन मात्र आदिवासी साहित्‍य नहीं कहा जा सकता। सवाल यह है कि क्‍या प्रगतिशील रचनाएं सिर्फ 'प्रगतिवाद' में शामिल होने के लिए लिखी जानी चाहिए! आदिवासी जीवन पर गैर-आदिवासी लिखें। किसी भी विषय पर कोई भी लिख सकता है, पाठक को भी पढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। गैर-आदिवासी लेखकों को चाहिए कि अगर वे आदिवासी समाज को लेकर सच में चिंतित हैं तो आदिवासी साहित्‍यकारों को प्रोत्‍साहित करें, उनका सहयोग करें क्‍योंकि प्रकाशन, प्रसार, प्रशंसा, पुरस्‍कार और पाठ्यक्रम के रूप में मौजूद साहित्‍य के एकेडमिया की पूरी मशीनरी पर गैर-आदिवासियों का कब्‍जा है। वैसे अब काफी संख्‍या में आदिवासी रचनाकार हिंदी में भी लिखने लगे हैं लेकिन इस तथ्‍य को ध्‍यान में रखते हुए कि हिंदी आदिवासियों की मातृभाषा नहीं रही है, आदिवासी भाषाओं में रचित मूल साहित्‍य के अलावा उसके हिंदी अनुवाद को भी पाठ्यक्रमों में शामिल करना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है कि हिंदी प्रदेश, हिंदी क्षेत्र और हिंदी जाति की बात करते वक्‍त हम हमेशा उत्‍तर प्रदेश, मध्‍य प्रदेश, उत्‍तराखंड, झारखंड, बिहार, राजस्‍थान, हिमाचल आदि के पूरे क्षेत्र और जनसंख्‍या को उसमें शामिल मानते हैं, लेकिन उनकी भाषाओं और साहित्‍य को कभी अपना नहीं मानते रहे। हिंदी के पाठ्यक्रम निर्माताओं को इस रूप में यह प्रायश्चित्‍त का अवसर मिला है।


      आदिवासियों ने किसी कौम पर राज करने के लिए नहीं, लेकिन अपना अस्तित्‍व बचाने के लिए बार-बार विद्रोह किया है। पिछली दो सदियां आदिवासी विद्रोहों की गवाह रही हैं। इन विद्रोहों से रचनात्‍मक ऊर्जा भी निकली, लेकिन वह मौखिक ही अधिक रही। समकालीन आदिवासी साहित्‍य की पृष्‍ठभूमि के रूप में आदिवासी समाज में हजारों साल पुरानी साहित्‍य की मौखिक परंपरा को रखा जा सकता है, जिसे पुरखौती कहा जाता है। पूर्वोत्‍तर भारत में लगभग डेढ़ सौ साल पहले और संताली आदि मध्‍य भारतीय आदिवासी भाषाओं में 1950 के आसपास से आदिवासी कलम ने अपने स्‍वरों को शब्‍दों में ढ़ालना शुरू किया। आजादी के बाद जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्‍व में भारतीय राजनीति से साहित्‍य तक में आदिवासी चेतना की गूंज सुनाई देने लगी। बाद के आदिवासी लेखन को उसी के विकास के रूप में देखा जा सकता है। पुरखौती रूप में मौजूद आदिवासी साहित्‍य जहां प्रकृति और प्रेम के विविध रूपों के साथ रचाव और बचाव का साहित्‍य है, वहीं समकालीन आदिवासी लेखन अस्मिता की खोज, दिकुओं द्वारा किये गए और किये जा रहे शोषण के विविध रूपों के उद्घाटन तथा आदिवासी अस्मिता और अस्तित्‍व के संकटों और उनके खिलाफ हो रहे संघर्ष का साहित्‍य है।


      आदिवासी साहित्‍य विविधताओं से भरा हुआ है। समृद्ध मौखिक साहित्‍य परंपरा का लाभ आदिवासी साहित्‍यकारों को मिला है। आदिवासी साहित्‍य की उस तरह कोई केन्‍द्रीय विधा नहीं है, जिस तरह स्‍त्री साहित्‍य और दलित साहित्‍य की आत्‍मकथात्‍मक लेखन है। आदिवासी रचनाकारों ने आदिवासी अस्मिता और अस्तित्‍व के संघर्ष में कविता को अपना मुख्‍य हथियार बनाया है। आदिवासी साहित्‍य में आत्‍मकथात्‍मक लेखन केन्‍द्रीय स्‍थान नहीं बना सका क्‍योंकि स्‍वयं आदिवासी समाज 'आत्‍म' में नहीं, समूह में विश्‍वास करता है। अधिकांश आदिवासी समुदायों में काफी समय बाद तक भी निजी और निजता की धारणाएं घर नहीं कर पाईं। परंपरा, संस्‍कृति, इतिहास, कला से लेकर विद्रोह तक, सब कुछ सामूहिक है और समूह की बात आत्‍मकथा में नहीं, जनकविता में ज्‍यादा अच्‍छे से व्‍यक्‍त हो सकती है। इस तरह आदिवासी साहित्‍य बिरसा, सिदो-कान्‍हू, सिनगी दई, फूलो झानो, माकी मुंडा, गोंड रानी दुर्गावती और तमाम आदिवासी पुरखों के जीवन और आंदोलनों से चेतना और प्रेरणा लेकर आगे बढ़ रहा है।


     


(आ) आदिवासी साहित्‍य की परंपरा और इतिहास


पिछले दशकों में मुक्तिकामी साहित्‍य ने पाठकों, शोधार्थियों और आलोचकों का ध्‍यान आकर्षित किया है। इसी प्रक्रिया में आदिवासी साहित्‍य ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज की है। अकादमिक दुनिया में स्‍त्रीवादी लेखन और दलित लेखन के बाद आने से जहां एक तरफ आदिवासी लेखन की राह थोड़ी आसान हुई, वहीं इसके बारे में कुछ सरलीकरणों और भ्रमों का निर्माण भी हुआ। आदिवासी लेखन और साहित्‍य के बारे में सही समझ बनाने के लिए इसकी स्रोत सामग्री और उसके आधार पर बनने वाली आदिवासी साहित्‍य की परंपरा की पड़ताल करना बहुत जरूरी है। साथ ही आदिवासी साहित्‍य की विचारधारा पर भी बात करना आवश्‍यक है। जब हम आदिवासी साहित्‍य की परंपरा और विचारधारा का व्‍यवस्थित अध्‍ययन करेंगे तो उसकी प्रवृत्तियों को भी समझ पायेंगे। जाहिर है मुक्तिकामी विमर्शों के दौर में इन विमर्शों और अस्मिताओं से संबंधित साहित्‍य की सही परंपरा और प्रवृत्तियों के अध्‍ययन के माध्‍यम से ही हम मूल्‍यांकन की सही प्रविधि निर्मित कर पायेंगे।


      आदिवासी साहित्‍य की परंपरा की पड़ताल करने के लिए आदिवासी साहित्‍य के स्रोतों का अध्‍ययन जरूरी है। सबसे पहले यह रेखांकित करना जरूरी है कि हमें साहित्‍य के पूर्व निर्धारित प्रतिमानों और पूर्वाग्रहों से मुक्‍त होकर इस विषय पर विचार करना चाहिए। हमारी परंपरागत समझ यह है कि किसी महानगर के किसी वर्चस्‍वशाली भाषा के ज्ञात प्रकाशक के यहां से मुद्रित-प्रकाशित, पुरस्‍कृत, प्रशंसित, पाठ्यक्रम में शामिल हो चुकी किताब ही श्रेष्‍ठ साहित्‍य है। साहित्‍य की किताबें अक्‍सर इसी प्रक्रिया में चर्चित हुआ करती हैं। आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा पर विचार करते वक्‍त हमें इस परिपाटी को छोड़ना होगा। तभी हम आदिवासी साहित्‍य की सही स्रोत सामग्री का चयन कर पायेंगे और इसकी परंपरा की पड़ताल कर पायेंगे। आदिवासी भाषाओं में रचित साहित्‍य और मौखिक परंपरा आदिवासी साहित्‍य का मूल स्रोत है। सिर्फ हिंदी में लिखित-मुद्रित आदिवासी संबंधी लेखन को आदिवासी साहित्‍य कहना उचित नहीं है। मौखिक साहित्‍य इसका मूलाधार है। आदिवासी साहित्‍य की परंपरा को तीन भागों में बांटकर समझा जा सकता है-


      1. पुरखा साहित्‍य


      2. आदिवासी भाषाओं में लिखित साहित्‍य की परंपरा।


      3. समकालीन हिंदी आदिवासी लेखन।


 


1. पुरखा साहित्‍य


      आदिवासी दर्शन व साहित्‍य का मूलाधार पुरखा साहित्‍य ही है। पुरखा साहित्‍य आदिवासी समाज में हजारों वर्षों से जारी मौखिक साहित्‍य की परंपरा है। 20वीं सदी में इसके संकलन, संपादन और प्रकाशन के कार्य भी हुए हैं। आदिवासी चिंतक इस मौखिक परंपरा को मौखिक साहित्‍य या लोक-साहित्‍य कहने के बजाय पुरखा साहित्‍य कहते हैं। इसके पीछे महत्‍वपूर्ण तर्क हैं। पहली बात तो यह कि मौखिक साहित्‍य कहने से कुछ पता नहीं चलता कि किसका मौखिक साहित्‍य, कैसा मौखिक साहित्‍य? दुनिया के तमाम समाजों में लिखित से पहले मौखिक साहित्‍य की परंपरा रही है। उससे अलगाने के लिए आदिवासी चिंतक आदिवासी मौखिक परंपरा को पुरखा साहित्‍य कहते हैं। इस प्रक्रिया में वे इसे लोक साहित्‍य से भी अलग बताते हैं। इस संदर्भ में आदिवासी चिंतक वंदना टेटे लिखती हैं कि चूंकि आदिवासी समाज में बाहरी समाज की तरह लोक और शास्‍त्र का भेद नहीं है, इसलिए साहित्‍य को भी नहीं बांटा जा सकता। चूंकि आदिवासी समाज और संस्‍कृति में पुरखों का बहुत महत्‍व है और मौखिक परंपरा में मिलने वाले गीत, कथाएं आदि भी पुरखों ने ही रची हैं, इसलिए इस मौखिक परंपरा को सम्मिलित रूप में पुरखा साहित्‍य कहना चाहिए।


      तमाम आदिवासी भाषाओं में पुरखा साहित्‍य की समृद्ध परंपरा मौजूद है। इसी के माध्‍यम से हम उनके जीवन-दर्शन, ज्ञान परंपरा, मूल्‍यों-विश्‍वासों आदि को जान सकते हैं। इसलिए आदिवासी जीवन को जानने के लिए पुरखा साहित्‍य को संकलित करना और सहेजना बहुत जरूरी है। इस दिशा में अध्‍येताओं ने थोड़ा बहुत कार्य किया है लेकिन काफी काम किया जाना बाकी है। देश में 300 से अधिक आदिवासी भाषाओं में पुरखा साहित्‍य की परंपरा बिखरी पड़ी है। इसके संकलन और संपादन में बहुत सावधानी की जरूरत है। अक्‍सर हम अपने पूर्वाग्रहों के साथ संकलन शुरू करते हैं और हमारे पूर्वाग्रह पाठ संशोधन के बीच में घुस जाते हैं। संकलन के लिए आदिवासी दर्शन और संबंधित भाषा का ज्ञान जरूरी है।


      उपलब्‍ध पुरखा साहित्‍य में दो-तीन विशेषताएं कॉमन हैं- पुरखों के प्रति कृतज्ञता का भाव, प्रकृति और प्रेम के प्रति गहरी संवेदनशीलता, बाहरी समाज के हमलों के प्रति सजगता, अपनी परंपरा और संस्‍कृति को बचाने का भाव आदि। आदिवासियों पर बाहरी समाजों के हमलों का इतिहास काफी पुराना है और उतनी ही पुरानी है उसके प्रति आदिवासी पुरखों की सजगता। उदाहरण स्‍वरूप एक गीत देखिए-


''रास्‍ते में एक जोड़ा जो लूदम फूल है


उस फूल को ऐ बेटी, किसने तोड़ लिया?


रास्‍ते में अटल फूल की जो कतार है


हे बेटी, किसने छिनगा लिया?


चमचमाते हुए शिकारी


शिकारियों ने फूल तोड़ लिया


झलकते हुए अहेरी


अहेरियों ने डाल को छिनगा दिया


शिकारियों ने जो फूल को तोड़ा


हे बेटी, चोटी से ही तोड़ लिया।


अहेरियों ने जो डाल को छिनगा दिया


सो हे बेटी, नीचे से ही छिनगा दिया!


शिकारियों ने जो फूल को तोड़ा


हे बेटी, उसकी फुनगी मुरझा गई


अहेरियों ने जो छिनगा दिया,


हे बेटी, उसका तना कुम्‍हला गया!''[6]


 


      उपर्युक्‍त गीत एक मुंडारी पुरखा गीत का हिंदी अनुवाद है। तमाम आदिवासी भाषाओं में इस तरह की सामग्री बिखरी पड़ी है। जरूरत है उसके प्रति सही दृष्टिकोण विकसित करने और उसे सहेजने की ताकि आदिवासी दर्शन और साहित्‍य की सही परंपरा से वाकिफ हो सकें।


2. आदिवासी भाषाओं में रचित साहित्‍य की परंपरा


      आदिवासी भाषाओं में लिपियां विकसित होने की शुरूआत अब से लगभग डेढ़ सौ साल पहले हो गई। अब तक एक दर्जन से अधिक आदिवासी भाषाओं की लिपियां तैयार हो चुकी हैं। कई आदिवासी भाषाओं ने पड़ौस की किसी बड़ी भाषा की लिपि को स्‍वीकार कर लिया है। निष्‍कर्षतः आदिवासी भाषाओं में लेखन और मुद्रण की परंपरा भी सौ साल से अधिक पुरानी है। इस परंपरा की और पड़ताल किये जाने की जरूरत है। मौजूदा स्रोत सामग्री के अनुसार मेन्‍नस ओड़ेय का 'मतुराअ कहनि' नामक मुंडारी उपन्‍यास पहला आदिवासी उपन्‍यास है। यह 20वीं सदी के दूसरे दशक में लिखा गया। इसके एक भाग का अनुवाद हिंदी में 'चलो चाय बागान' शीर्षक से किया गया।


      आदिवासी भाषाओं में रचित साहित्‍य का महत्‍व यह है कि इसमें विधाएं भले ही बाहरी समाजों और भाषाओं से ली गई हैं लेकिन चूंकि रचनाकार अपनी मातृभाषा में लिख रहा है इसलिए अभिव्‍यक्‍त विचार और दर्शन में मौलिकता बनी रहती है। पूर्वोत्‍तर की खासी, गारो आदि भाषाओं में शौर्यगाथाओं की लंबी परंपरा है। धीरे-धीरे हिंदी आदि अन्‍य भाषाओं में भी इनके अनुवाद होने लगे हैं। ढ़ेरों आदिवासी भाषाओं के लेखन में गए बिना सिर्फ गैर-आदिवासी भाषाओं में प्राप्‍त सामग्री के आधार पर आदिवासी साहित्‍य के बारे में बनाई गई राय अधूरी और भ्रामक होगी। अब भी हर साल आदिवासी भाषाओं में सैंकड़ों किताबें प्रकाशित हो रही हैं। हालांकि स्‍पष्‍ट समझदारी के अभाव में कहीं उसे आदिवासी लोक साहित्‍य कहा जा रहा है तो कहीं लोक कथाएं।


3. समकालीन हिंदी आदिवासी लेखन


      पुरखा साहित्‍य और आदिवासी भाषाओं में लिखित साहित्‍य से प्रेरणा ग्रहण कर बाहरी साहित्‍य के प्रभाव में हिंदी, बांग्‍ला, तमिल, मलयालम, उडिया आदि बड़ी भाषाओं में भी लेखन शुरू किया। हर भाषा में इसकी शुरूआत के समय में थोड़ा-बहुत फर्क है। हिंदी में इसकी शुरूआत तीन दशक पहले से मानी जा सकती है। हिंदी के लेखकों के प्रभाव में आदिवासियों ने मुंडारी, संताली, खडि़या आदि भाषाएं छोड़कर हिंदी में लिखना शुरू किया। हालांकि इनकी ज्‍यादातर रचनाएं छोटे प्रकाशनों से छपी हैं या अप्रकाशित ही रही हैं लेकिन इसके बावजूद पिछले तीन दशकों में हिंदी में सक्रिय आदिवासी रचनाकारों की संख्‍या कई दर्जन है। इन्‍होंने कविताओं के अलावा कहानियां और उपन्‍यास तो लिखे ही हैं, कुछ ने तो व्‍यंग्‍य, संस्‍मरण, यात्रा-वृत्‍तांत आदि विधाओं में भी हाथ आजमाया है। हिंदी आदिवासी कविता में पहला नाम सुशीला सामद का है लेकिन उसके बाद एक निरंतरता का अभाव दिखाई देता है। इसलिए समकालीन हिंदी आदिवासी कविता की शुरूआत हम रामदयाल मुंडा की कविताओं से मान सकते हैं जिन्‍होंने मुंडारी के साथ हिंदी में भी कविताएं लिखी हैं। उनके बाद ग्रेस कुजूर, रोज केरकेट्टा, हरिराम मीणा, महादेव टोप्‍पो, निर्मला पुतुल, वंदना टेटे, विजय सिंह मीणा, ज्‍योति लकड़़ा, अनुज लुगुन, जसिंता केरकेट्टा आदि का नाम उल्‍लेखनीय है। कथा लेखन के क्षेत्र में वाल्‍टर भेंगरा 'तरुण', पीटर पौल एक्‍का, रोज केरकेट्टा, मुंगल सिंह मुंडा, विजय सिंह मीणा आदि प्रमुख हैं। इन्‍होंने आदिवासी साहित्‍य को सैंकड़ों कहानियां और लगभग आधा दर्जन उपन्‍यास दिये हैं। शंकरलाल मीणा व्‍यंग्‍य और कहानी- दोनों क्षेत्रों में सक्रिय हैं। हरिराम मीणा ने यात्रा-वृत्‍तांत व संस्‍मरण भी लिखे हैं।


      इस प्रकार हम देखते हैं कि आदिवासी साहित्‍य न केवल हिंदी आदि गैर-आदिवासी भाषाओं की एक उभरती प्रवृत्ति और साहित्‍यांदोलन है, बल्कि आदिवासी भाषाओं में इसकी गहरी जड़ें और लंबी परंपरा मौजूद है. इसके बारे में राय बनाने के लिए पूरी परंपरा का अध्‍ययन आवश्‍यक है.


 


संपर्क- एसोशिएट प्रोफेसर, भारतीय भाषा केन्‍द्र, जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय, नई दिल्‍ली-67 






[1] आदिवासी और आदिवासी साहित्‍य की अवधारणा, वीर भारत तलवार, तद्भव-34, नवंबर 2016, पृष्‍ठ-29-46




[2] तद्भव-34, पृष्‍ठ- 45




[3] संपादक की कलम से, आदिवासी साहित्‍य विमर्श - गंगा सहाय मीणा (सं.), अनामिका प्रकाशन, दिल्‍ली, पृष्‍ठ-9




[4] 'आदिवासी साहित्‍य : परंपरा और प्रयोजन' – वंदना टेटे, प्‍यारा केरकेट्टा फाण्‍डेशन, रांची, 2013, पृष्‍ठ– 84




[5] वही, (पृष्‍ठ 87-88)




[6] बांसरी बज रही है (मुंडारी गीतों का संकलन)- जगदीश त्रिगुणायत












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